वेदों का इतिहास
पाश्चात्य विद्वानों की बात तो छोड़ दें, वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानने वाले सायणादि भाष्यकार भी वेदों में इतिहास मान, यह भूल जाते हैं कि वेदों में इतिहास मानते ही उनके अपौरुषेय होने का सिध्दांत समाप्त हो जाता है। इतिहास का प्रारंभ मानवोत्पत्ति के साथ ही होता है और जब वेद-प्रकाशन प्रथम मानवोत्पत्ति के साथ ही हुआ तो उसमें मानव-इतिहास होने का प्रश्न ही नहीं है। अतः इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिए कि वेदों में इतिहास नहीं है। बाइबल, कुरान आदि इनमें इतिहास की भरमार होने के कारण ईश्वरीय ज्ञान नहीं कहे जा सकते।इसी प्रकार यह भी सदैव स्मरण रखना चाहिए कि ईश्वर सिर्फ भारतीयों (आर्यावर्त्त देशीय लोगों) का ही पिता नहीं वरन् सम्पूर्ण सृष्टि का पालन कर्त्ता है अतः उसका ज्ञान, लोक- लोकान्तर में स्थित मानवों के लिये है। अतः वेदों में आये भौगोलिक स्थलों, नदी, पहाड़ों आदि के नाम भारत स्थित भौगोलिक स्थलों के नहीं हैं। ऐसा मानने पर वेदों की सार्वभौमिक का सिध्दांत खण्डित हो जाता है। वस्तुत वेदों में दिखाई देने वाले राजाओं, ऋषियों, स्थानों तथा घटनाओं के वर्णन किसी लौकिक इतिहास का पता नहीं देते।
"सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।
वेद शब्देभ्य एवाऽऽदौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे।।
मनु (१/२१)।।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि चारों वेदों में सृष्टि रचना का वर्णन तो है किंतु मानवीय इतिहास अथवा भौगोलिक वर्णन नहीं है। (वेदों के अपौरुषेय होने में यह एक प्रबल प्रमाण है।) यह भी स्मरण रखना चाहिए कि वेद ज्ञान सार्वकालिक है। ऐसा नहीं है कि सृष्टि के कालखंड विशेष के लिए ही यह प्रासंगिक है। वेद ज्ञान की आवश्यकता जब-जब और जहाँ-जहाँ मानव सृष्टि है तब-तब और वहाँ-वहाँ है। यह भी कि वेद ज्ञान में कभी परिवर्तन नहीं होता, क्योंकि पूर्ण होने से परिवर्तन की किसी भी काल में आवश्यकता नहीं है।
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