Monday, September 14, 2020


आर्य समाज

 आर्य समाज ईश्वर में विश्वास रखने वाली संस्था है। इसकी स्थापना 1875 ई. में स्वामी दयानंद जी ने बंबई (जिसे आज हम मुंबई के नाम से जानते हैं) नगर में की थी।
 आर्य का अर्थ है - श्रेष्ठ प्रगतिशील, महान् स्वभाव वाला, सदाचारी, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्य विद्या से पूर्ण और सनातन्  सिद्धांतोंं को माननेे वाला। इस प्रकार आर्य समाज का जो अर्थ हुआ वह है श्रेष्ठ् व प्रगतिशील लोगों का समाज। जो सही रास्ते पर चलने के लिए दूसरों को प्रेरित करता है ।    

आर्य समाज का मूल मंत्र है -
कृण्वन्तो विश्मार्यम्
अर्थात्  विश्व को आर्य बनाए।

 आर्य समाज सच्ची ईश्वर की पूजा करने के लिए प्रेरित करता है। यह ईश्वर आकाश, वायु की तरह सर्वव्यापी है। यह प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्म अनुसार फल देता है, अगला जन्म देता है। उसकी उपासना घर में कहीं भी एकांत में की जा सकती है। ईश्वर कर्मकांड करने से नहीं बल्कि सच्चे दिल से पुकार नहीं प्राप्त होता है। आर्य समाज ईश्वर को उसी प्रकार मानता है, जिस प्रकार विज्ञान की भाषा में कहूं तो, परमाणु को न कोई बना सकता है, और न कोई तोड़ सकता है। यानी यह अनादि काल से है। उसी प्रकार एक परमात्मा वह अनेक जीव आत्मा भी अनादि काल से है। परमात्मा आत्माओं को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। आर्य समाज कर्म फल और मुक्ति में विश्वास रखता है। जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाना ही मुक्ति है।


 वेद आर्य समाज के मूल आधार ग्रंथ है। महर्षि दयानंद वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं। आर्य समाज के सब सिद्धांतों और नियम वेदों पर आधारित है। आर्य समाज का मानना है कि वह सब सत्य विद्याओं का मूल ग्रंथ है। आर्य समाज की स्थापना महर्षि दयानंद वेदों से निकलकर ऐसी ज्ञान लाए जो आधुनिक जगत् विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है। वेद के आधार पर उन्होंने बताया कि ईश्वर एक है तथा गुण के आधार पर ईश्वर के अनेक नाम है। वेदों के साथ अन्य ग्रंथों को में महत्व दिया गया है, जैसे उपनिषद, सड्दर्शन, गीता, वाल्मीकि रामायण आदि महर्षि दयानंद ने सभी ग्रंथों का निचोड़ सत्यार्थ प्रकाश में दिया है।

जिस प्रकार प्रतीक संस्था के कुछ मान्यताएं एवं कुछ खंडन रहते हैं उसी प्रकार आर्य समाज की भी कुछ मान्यताएं है, तो कुछ मान्यताओं का खंडन भी है जो इस प्रकार है -

मान्यताएं

  •  ईश्वर का सर्वोच्च नाम ओ३म है। उसके अनेक गुण होने के कारण अनेक नाम है, जैसे पवित्र, अजर, अमर, ब्रह्म, गणेश है। उनका अलग-अलग नामों से मूर्ति पूजन करना ठीक नहीं है।
  • आर्य समाज वेदों का पुनः पृष्ठापन करता है। उसमें समाहित ज्ञान को ही सर्वोत्तम ज्ञान मानता है।
  • आर्य समाज सर्वोन्नति पर बल देता है। आर्य समाज किसी धर्म, जाति या देश की उन्नति नहीं चाहता बल्कि सब मनुष्य व पूर्व मानव समाज का कल्याण करना चाहता है। यह स्त्री शिक्षा पर भी बल देता है।
  • आर्य समाज वर्ण व्यवस्था यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को कर्म से मानता है जन्म से नहीं।

खण्डन

  • आर्य समाज जात-पात का खंडन करता है। यह समाज जाति या धर्म को उच्च या निम्न नहीं मानता। यह संपूर्ण मानव जाति को एक समान मानता है।
  • आर्य समाज बाल विवाह का विरोध करता है। स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में लिखा है कि, लड़कियों के लिए 16 वर्ष तथा 21 वर्ष विवाह के लिए उचित मानी है। यही आर्य समाज विधवा विवाह के पक्षधर भी हैं।
  •  आर्य समाज मांस भक्षण माधव पान का भी विरोध करता है।
  •  आर्य समाज ज्योतिष विद्या, जादू - टोना, दर्पण, भूत-प्रेत, मूर्ति, पूजा आदि में विश्वास नहीं रखता तथा इसका खंडन करता है। इन सब को वेदों के विरुद्ध मानता है।

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