कक्षा - आठवीं
पाठ - 11
योग की दूसरी सीढ़ी - पांच नियम
प्रश्न 1 - नियम कितने हैं और कौन-कौन से हैं?
उत्तर 1 - नियम पांच है।
1 शौच
2 सन्तोष
3 तप
4 स्वाध्याय
5 ईश्वर प्रणिधान
प्रश्न 2 - शौच नामक नियम से क्या अभिप्राय है?
उत्तर 2 - शुद्धि, स्वच्छता, शारीरिक और मानसिक पवित्रता को शौच कहते हैं। जीवन को सुखी स्वस्थ और आनंदमय बनाने के लिए पवित्रता की आवश्यकता है। पवित्रता को सफाई तथा ईमानदारी इन दो भागों में बाँट सकते हैं। सफाई का संबंध शरीर से, वस्त्रों से, घर और बाहर से तथा वातावरण से है। हैं ईमानदारी का संबंध धन और मन से है।
प्रश्न 3 - संतोष नामक नियम का अर्थ तथा उसके पालन करने के लाभ बताइए?
उत्तर 3 - पूरी तत्परता, पुरुषार्थ और प्रयत्न से किए हुए कर्म का जो फल प्राप्त हो, उससे अधिक का लोभ न करना संतोष कहलाता है। इच्छा जितनी घटेगी, सुख उतना बढ़ेगा। इच्छा ऐसी आग है, जो संतोष के जल के बिना बुझती ही नहीं। संतोष सुख का और असंतोष दु:ख का मूल है।
प्रश्न 4 - तप की व्याख्या कीजिए।
उत्तर 4 - जीवन में अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए धैर्य और प्रसन्नता से सुख-दु:ख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, इनको सहन करना तप है। व्यक्ति को चाहिए कि वह कर्तव्य का पालन करता रहे - सुख आए या दुख, गर्मी हो या सर्दी, मान हो या अपमान, कष्ट-क्लेश हो या आराम, इन सब को प्रसन्नता से सहन करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ जाए।
प्रश्न 5 -स्वाध्याय के दो अर्थ बताए।
उत्तर 5 - स्वाध्याय अर्थात् स्व-अध्ययन, अपने मन और आत्मा का निरीक्षण। ओ३म् का जप, गायत्री मंत्र का जप, वेद, उपनिषद् आदि पवित्र ग्रंथों का पाठ स्वाध्ययन कहलाता है।
प्रश्न 6 - ईश्वर भक्ति आपके अपने कर्मों से कैसे होती है?
उत्तर 6 - ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है - अपने सब कर्मों को ईश्वराधीन मानकर उसकी सेवा में अर्पण कर देना। भाव यह है कि जो भी कर्म किए जाए, फलसहित उसको ईश्वर को अर्पण कर देना। ईश्वर प्रणिधान की भावना रखने वाला भक्त जो भी कर्म करेगा, उसे पूरी सावधानी से करेगा क्योंकि वह जानता है कि उसका सारा कर्म ईश्वर को अर्पण करने के लिए है।
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